दो मोर्चों वाला युद्ध जीतने के लिए भारत इजरायली और कोरियाई सेनाओं से सबक ले

दो मोर्चों युद्ध लड़ने में नुक़सानों से बचा जा सकता है बशर्ते राष्ट्रीय रणनीति और सैन्य कार्रवाई के स्तर पर कौशल का प्रयोग किया जाए. भारत अपनी रणनीतिक गहराई की वजह से चीन, पाकिस्तान से बेहतर स्थिति में है.

अपना पड़ोसी चुनना किसी देश के वश में तो नहीं है मगर भूगोल के वश में जरूर है. ये पड़ोसी दोस्त भी हो सकते हैं या दोस्त नहीं भी हो सकते हैं, और दोस्त रातोरात दुश्मन भी बन जा सकते हैं. गैरदोस्ताना पड़ोसियों का सामना होने पर कोई भी देश को एक साथ कई चुनौतियों का सामना करने पर मजबूर होना पड़ सकता है. उसे दो मोर्चों पर युद्ध (जिसे सेना के मुहावरे में ‘इंटीरियर लाइन्स’ ऑपरेशन कहा जाता है) लड़ना पड़ सकता है, जैसा भारत के साथ भी हो सकता है.

इतिहास बताता है कि दो मोर्चों पर लड़ने की सलाह सबसे बुरी सलाह ही साबित हो सकती है लेकिन हालात कभी-कभी ऐसे हो जाते हैं कि इससे बचा नहीं जा सकता. लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि ‘इंटीरियर लाइन्स’ वाले युद्ध में सेना की हार निश्चित ही है इसलिए उसे पहले ही हथियार डाल देने चाहिए? किसी भी देश या सेना के लिए यह पराजयवादी रवैया ही होगा. युद्ध और उसे लड़ना कोई तयशुदा विज्ञान नहीं होता, उसमें कई अबूझ और अभेद्य बातें होती हैं जिनका कभी पहले से ख्याल नहीं रखा जा सकता. दो मोर्चों युद्ध लड़ने या कई तरह के दबावों का मुक़ाबला करने में नुक़सानों से बचा जा सकता है बशर्ते राष्ट्रीय रणनीति और सैन्य कार्रवाई के स्तर पर कौशल का प्रयोग किया जाए.

इस मामले में पहला उदाहरण जो ध्यान में आता है वह अगस्त-सितंबर 1950 में कोरियाई युद्ध के दौरान ‘बैटल ऑफ पुसान (बूसान) पेरीमीटर का है. कोरियाई पीपुल्स आर्मी (केपीए) ने संयुक्त राष्ट्र की सेना (यूएन कमांड) मात दे दी थी और उसे कोरियाई प्रायद्वीप से खदेड़कर बंदरगाह शहर पुसान तक पहुंचा दिया था. केपीए के हमलों का जवाब देने के लिए पुसान को अड्डा बनाकर नाक्तोंग नदी के किनारे-किनारे रक्षात्मक घेरा (पेरीमीटर) बनाया गया जो पूरब से पश्चिम तक 60 किमी लंबा और उत्तर से दक्षिण तक 90 किमी लंबा था.

इस तरह केपीए घेरे की बाहरी रेखा पर और यूएन कमांड अंदरूनी रेखा पर तैनात थी. केपीए का संख्याबल ज्यादा था और वह बेहतर प्रशिक्षण और मनोबल से लैस थी इसलिए युद्ध का नतीजा स्पष्ट होना चाहिए था मगर वैसा होना नहीं था.

बाहरी रेखा पर ऑपरेट कर रही सेना की सफलता की एक शर्त यह है कि वह हर समय पूरे मोर्चे पर पर्याप्त ताकत के साथ दबाव बनाए रखे और दूसरे पक्ष को सांस लेने का और अपने रिजर्व को बढ़ाने या उसका इस्तेमाल करने का कोई मौका न दे. 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में भारत ने यही किया था, जब भारतीय सेना बाहरी रेखा पर ऑपरेट कर रही थी और कई दिशाओं से इतना दबाव डाला था कि पाकिस्तानी फौज का मनोबल टूट गया था और उसने 90 हजार से ज्यादा सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण कर दिया था.

लेकिन केपीए इसी में विफल रही थी उसने ऑपरेशनों की गति नहीं बनाए रखी. नतीजतन, यूएन कमांड ने बिना तालमेल के किए गए हरेक हमले को नाकाम कर दिया और अगले अहम मोर्चे पर जवाबी हमला करने के लिए वह तैयार हो गया.

इसे बॉक्सिंग के मुक़ाबले के उदाहरण से यूं समझिए कि कोई बॉक्सर ताबड़तोड़ मुक्के जड़ने के बाद अपना संतुलन और सुरक्षा बनाता है. युद्ध के शुरू के दिनों में यूएन कमांड के लिए घेरा जब छोटा हो गया तो उसने अपना अहम रिजर्व तैयार करने के लिए ज्यादा यूनिट मुक्त कर दिया. इससे उसे ज्यादा कुमुक भेजने का मूल्यवान समय मिल गया, राहत मिली और जगह को खाली करने की डंकिर्क जैसी कार्रवाई करने की शर्म से बचा जा सका.

हालांकि इसे बाहरी रेखा से ऑपरेट कर रही सेना पर अंदरूनी रेखा से ऑपरेट कर रही सेना की जीत का उदाहरण बताया जा सकता है लेकिन यह जीत सितंबर के मध्य में इंचोन में दुश्मन सेना के पिछले हिस्से में अपनी सेना उतारने के बाद ही संभाव हो सकी थी. उसने यूएन की सेना को बाहरी रेखा पर मजबूत बना दिया और बाजी उसके पक्ष में पलट गई थी.

एक एक मोर्चे पर

दूसरा प्रासंगिक उदाहरण 1967 के अरब-इजरायल युद्ध का है, जिसे ‘छह दिन (5-10 जून) की लड़ाई’ के नाम से जाना जाता है. इजरायल ने मिस्र, सीरिया, और जॉर्डन की संयुक्त सेनाओं से कई मोर्चों पर लड़ाई लड़ी और जीती. अरबों की हार की मुख्य वजह उनकी सेनाओं में आपसी तालमेल की कमी थी. यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि तनाव बढ़ने और आसन्न हमलों के साफ संकेतों के बावजूद इजरायल ने पहले हवाई हमला कर दिया जिससे मिस्र और सीरिया की 90 फीसदी वायुसेना खुले में आ गई. हवाई सुरक्षा के अभाव में अरब सेना को इजरायल की ज्यादा बेहतर सेना ने परास्त कर दिया, जिसमें उसे हवाई ताकत का भी लाभ मिला.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने बमुश्किल तीन दिन की लड़ाई के बाद ही 7 जून को युद्धविराम की पेशकश की, जिसे जॉर्डन ने तुरंत कबूल कर लिया, इस तरह एक ‘मोर्चा’ कट गया. इस स्थिति में, मिस्र ने 8 जून को युद्धविराम कबूल किया और एक और ‘मोर्चा’ कट गया. केवल सीरिया अंत तक टिका रहा. हालांकि इजरायल ने शानदार जीत हासिल की थी, उसे भी युद्ध जल्दी खत्म करने का महत्व समझ में आ गया और उसने अमेरिका और परिषद के दूसरे स्थायी सदस्यों के साथ अपने संबंध का लाभ उठाते हुए युद्धविराम थोप दिया.

इस तरह, हालांकि इजरायल कई मोर्चों वाला युद्ध जीत गया लेकिन इस बात को कबूल करना पड़ेगा कि यह नतीजा कूटनीतिक, सूचनात्मक, सैन्य, और आर्थिक कारणों के मेल ‘डाइम’ की वजह से आया. अगर वह युद्ध आज के रूस-यूक्रेन युद्ध की तरह छायायुद्ध के रूप में लंबा खिंचता तो नतीजा बिलकुल अलग होता.

भारत इन दोनों उदाहरणों से सबक ले सकता है. दो मोर्चों पर युद्ध की संभावना के मद्देनजर उसके लिए बेहतर होगा कि वह शुरू में ही कूटनीतिक उपायों, संधि, गठबंधन आदि के जरिए एक मोर्चे को समीकरण से बाहर कर दे. ऐसा न हो पाए तो वह पहल करके एक मोर्चे पर घटक हमला बोल दे ताकि दूसरे मोर्चे से निबटने के लिए समय मिल सके. भारत अपनी रणनीतिक गहराई की वजह से बेहतर स्थिति में है जब वह अपने संसाधन को इस्तेमाल कर सके और उद्योगों तथा नागरिकों की क्षमताओं का पूरा उपयोग कर सके.

दो में से किसी मोर्चे पर स्वतंत्र रूप से अपने ऑपरेशनल तथा रणनीतिक रिजर्व के कुशल प्रबंधन के जरिए अपनी सेना का इस तरह उपयोग करना संभव है कि वे गतिशील बाहरी रेखा पर निर्णयात्मक स्थानों पर दुश्मन को घातक झटका दे सके. ऑपरेशन के स्तर पर, युद्धक्षेत्र का इलाका भारत के अनुकूल है चाहे यह शकरगढ़ सेलिएंट (भारत की बाहरी रेखा, पाकिस्तान की आंतरिक रेखा) हो या तवांग के सामने बूमला बाउल जहां भारत चीन के मुक़ाबले बाहरी रेखा पर है. युद्ध एक अनिश्चित कला है, और युद्ध में जीत हथियार लेकर खड़ा सैनिक ही दिला सकता है. इस मामले में भारतीय सेना अपने आक्रामक पड़ोसियों की सेनाओं से दो बित्ते ऊपर ही है.

 जनरल मनोज मुकुंद नरवणेपीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएमभारतीय सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं.)

लेख आभार दा प्रिंट हिंदी

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