उत्तर प्रदेश में ज़िला पंचायत अध्यक्षों का निर्वाचन यूं तो शनिवार यानी आज हो रहा है लेकिन क़रीब एक तिहाई ज़िलों के पंचायत अध्यक्ष नाम वापसी की तारीख़ बीतने के बाद ही निर्विरोध निर्वाचित घोषित किए जा चुके हैं.
निर्विरोध तरीक़े से होने वाले इस निर्वाचन को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं और प्रशासन पर सीधे तौर पर आरोप लग रहे हैं कि वे सत्तारूढ़ दल के उम्मीदवारों के पक्ष में काम कर रहा है.
चुनाव के लिए नामांकन की आख़िरी तारीख़ 26 जून थी जिसके समाप्त होने के बाद 22 ज़िलों के पंचायत अध्यक्ष निर्विरोध निर्वाचित हो गए. जिनमें इटावा में समाजवादी पार्टी के और बाक़ी 21 ज़िलों में बीजेपी के पंचायत अध्यक्ष बन गए.
आरोप-प्रत्यारोप
22 ज़िलों में निर्विरोध निर्वाचन के बाद अब 53 ज़िलों में तीन जुलाई यानी आज पंचायत अध्यक्ष पद के लिए वोट डाले जा रहे हैं. इनमें भी ज़्यादातर सीटें ऐसी हैं जहां मुक़ाबला सिर्फ़ दो उम्मीदवारों के बीच है.
समाजवादी पार्टी ने बीजेपी सरकार पर गंभीर आरोप लगाए हैं कि उनकी पार्टी के उम्मीदवारों को ज़िलों में नामांकन ही नहीं करने दिया गया. ख़रीद-फ़रोख़्त के आरोप तो इन चुनावों में पहले भी लगते रहे हैं और इस बार भी जमकर लगे हैं.
हालांकि भारतीय जनता पार्टी इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज करती है.
बीजेपी प्रवक्ता मनीष शुक्ल कहते हैं, “जिन लोगों ने फ़र्जी दावे किए थे कि उनकी पार्टी के ज़िला पंचायत सदस्य जीते हैं, अब वही आरोप लगा रहे हैं. सच्चाई यह है कि निर्दलीय सदस्य ज़्यादातर बीजेपी के समर्थक थे.”
आरोप हैं कि ज़िला पंचायत अध्यक्ष चुनने वाले ज़िला पंचायत सदस्यों को एक-एक वोट के बदले लाखों रुपये दिए जा रहे हैं. ज़िला पंचायत सदस्यों के ग़ायब होने या फिर उन्हें बंधक बनाए जाने की भी ख़बरें जगह-जगह से आ रही हैं.
ग़ाज़ीपुर ज़िले में तो क़रीब एक दर्जन ज़िला पंचायत सदस्य नोटों की गड्डियां लेकर पुलिस अधीक्षक के पास पहुंच गए. इन लोगों का कहना था कि किसी उम्मीदवार ने इन्हें मिठाई भेजी थी लेकिन मिठाई के डिब्बे में नोटों की गड्डियां निकलीं.
दरअसल, उत्तर प्रदेश में ज़िला पंचायत अध्यक्षों का चुनाव ज़िलों के ग्रामीण इलाक़ों के मतदाताओं से सीधे तौर पर चुने गए ज़िला पंचायत सदस्य करते हैं.
कोरोना संक्रमण के दौरान हुए इन ज़िला पंचायत सदस्यों के चुनाव में बीजेपी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल के अलावा आम आदमी पार्टी ने भी अपने उम्मीदवार खड़े किए थे. सपा और रालोद ने संयुक्त उम्मीदवार खड़े किए थे और दावा किया था कि सबसे ज़्यादा पंचायत सदस्य उन्हीं के दलों के जीते हैं. जीते हुए उम्मीदवारों में निर्दलीय सबसे ज़्यादा थे जिन पर सपा और बीजेपी दोनों ही अपने समर्थक होने का दावा कर रहे थे.
ज़िला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए ख़रीद-फ़रोख़्त का आरोप लगाते हुए बहुजन समाज पार्टी ने अपने उम्मीदवार न खड़े करने का फ़ैसला किया और कांग्रेस पार्टी ने भी एक-दो जगह छोड़कर उम्मीदवार नहीं उतारे हैं.
मुख्य मुक़ाबला बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच ही है. ध्यान देने वाली बात ये हैं कि बीजेपी उम्मीदवार ऐसे कई ज़िलों में भी अध्यक्ष पद पर निर्विरोध निर्वाचित हो गए हैं जहां उनकी पार्टी के महज़ दो-चार ज़िला पंचायत सदस्य ही जीते थे.
पहले भी रहा है विवाद
परोक्ष निर्वाचन से चुने जाने वाले ज़िला पंचायत अध्यक्षों का निर्वाचन पहले भी विवादित रहा है और आमतौर पर यह कहा जाता है कि ‘अध्यक्ष पद पर अक़्सर उसी पार्टी के उम्मीदवार जीत जाते हैं जिस पार्टी की राज्य में सरकार होती है.’ यहां तक कि सरकार बदलने के बाद ज़िलों के पंचायत अध्यक्ष भी कई बार बदल जाते हैं यानी दोबारा जिस पार्टी की सरकार बनती है, उसी के समर्थक ज़िला पंचायत अध्यक्ष बन जाते हैं. इसके लिए ज़िला पंचायत सदस्य अपने अध्यक्ष के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव का सहारा लेते हैं.
समाजवादी पार्टी भी जब सत्ता में थी तब उस पर भी इन चुनावों में धांधली के जमकर आरोप लगे थे लेकिन अब सबसे ज़्यादा धांधली का आरोप समाजवादी पार्टी ही लगा रही है.
समाजवादी पार्टी की प्रवक्ता जूही सिंह कहती हैं, “ज़िला पंचायत सदस्य पहले निर्दलीय होते थे. उन्हें अपने पक्ष में लाने के लिए हम कोशिश करते थे लेकिन प्रशासन से कहकर किसी का घर गिरवाया हो या पर्चा न भरने दिया गया हो, ऐसा कभी नहीं हुआ है. पहले भी ये चुनाव विवादित ज़रूर रहे हैं लेकिन पंचायत चुनाव में जो पार्टी इतनी बुरी तरह हारी, वो प्रशासनिक मशीनरी का सहारा लेकर अध्यक्ष पद हथियाना चाह रही है. विरोधियों के ख़िलाफ़ जिस तरह की कार्रवाई की जा रही है, वो आपत्तिजनक है. विरोधी प्रत्याशियों के घर गिराए जा रहे हैं, परिजनों को धमकाया जा रहा है, एनएसए लगाया जा रहा है. यह पहली बार है कि चुनाव सीधे-सीधे प्रशासन ही लड़ रहा है. लोकतंत्र के लिए यह स्वस्थ परंपरा नहीं है.”
विरोधी दलों का आरोप है कि ज़िला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव ऐसा हो गया है जिसमें मत हासिल करने से ज़्यादा ज़ोर इस बात पर है कि कोई प्रतिद्वंद्वी चुनाव ही न लड़ पाए.
यानी पहले तो पर्चा ही न दाख़िल कर पाए और कर भी दे तो पर्चा वापस ले ले. लेकिन सवाल यह है कि इतने सब के बावजूद मतदान तो होंगे ही. लेकिन यदि चुनाव प्रक्रिया इस तरह की है तो मतदाताओं का निष्पक्ष होकर मतदान कर पाना कितना आसान होगा?
जानकार क्या कहते हैं
वरिष्ठ टीवी पत्रकार ब्रजेश मिश्र कहते हैं कि चुनाव निष्पक्ष होने की कोई स्थिति नहीं दिख रही है क्योंकि बड़ी संख्या में ज़िला पंचायत सदस्य लापता हैं.
ब्रजेश मिश्र कहते हैं, “पहली बात तो यह कि ज़िला पंचायत अध्यक्षों का भी यदि सीधे जनता द्वारा निर्वाचन हो तो भ्रष्टाचार की ऐसी चरम स्थिति शायद देखने को न मिले. इससे पहले भी भ्रष्टाचार होता रहा है. फ़र्क यह है कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने पैसे के बल पर ये चुनाव जीते जबकि बीजेपी बिना पैसा ख़र्च किए ही अपने अध्यक्ष बनाना चाह रही है. ज़ाहिर है, ऐसा करने के लिए उसे सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करना पड़ रहा है, पुलिस-प्रशासन-बुलडोज़र का सहारा लेना पड़ रहा है.”
ब्रजेश मिश्र कहते हैं कि बीजेपी के पास इतना भारी बहुमत था और ख़ुद को वो अलग पार्टी के रूप में पेश करती है, ऐसे में उसे कुछ नए मानदंड स्थापित करने चाहिए थे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. इन चुनावों में मतदाताओं को लुभाने और अपनी तरफ़ करने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडों पर चुटकी लेते हुए उन्होंने एक ट्वीट भी किया है- “यूपी में ज़िला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव है. ऐसा प्रतीत होता है ये चुनाव किसी क़बीले में हो रहा.”
ज़िला पंचायत चुनाव के दौरान बाग़पत में तो बेहद दिलचस्प मामला देखने को मिला जब राष्ट्रीय लोकदल की उम्मीदवार का नामांकन ही किसी और ने जाकर वापस ले लिया. रालोद प्रत्याशी ममता ने इंटरनेट पर वीडियो वायरल कर बताया कि वो तो राजस्थान में हैं. काफ़ी हंगामे के बाद उनका नामांकन मान्य हो गया. अब यहां रालोद और बीजेपी के बीच सीधी लड़ी है. यही नहीं, यहां बीजेपी उम्मीदवार सपा से आई हैं और रालोद उम्मीदवार भी नामांकन के बाद बीजेपी में चली गई थीं लेकिन बाद में फिर रालोद में आ गईं.
राज्य सरकार के एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी कहते हैं कि चुनाव में इस तरह की गतिविधियों से लोकतंत्र के प्रति लोगों की आस्था कमज़ोर होगी.
नाम न छापने की शर्त पर ये अधिकारी कहते हैं, “इस तरह का पारदर्शी भ्रष्टाचार लोकतंत्र के प्रति आमजन की आस्था को कमज़ोर करेगा. सरकार बदलते ही इन्हीं सदस्यों की निष्ठा फिर बदल जाती है और रातोंरात सरकार के साथ चले जाते हैं. इसका एकमात्र इलाज यही है कि चुनाव प्रत्यक्ष कराए जाएं. यदि शहरों में मेयर के चुनाव प्रत्यक्ष तरीक़े से हो सकते हैं तो ज़िला पंचायत अध्यक्ष के क्यों नहीं?”
साभार बीबीसी